भूल सकता हूँ नहीं , वो नेह का स्पर्श तेरा
और उस पर श्वाँस की गति का चरम-उत्कर्ष मेरा
देह की वो उष्णता , उस पर वो तेरी प्रेम वर्षा
पा के तुझको गर्व मेरा , और फिर वो हर्ष मेरा
आज फिर मैं हूँ अकेला.....
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प्यार ने मुझको गगन के छोर तक पहुंचा दिया पर
दूर मुझसे हो गया है मेरा साथी , मेरा साया,
ज़ख्म, आंसू और आहें भूल बैठे हैं मुझही को
जो कभी कहते थे, छोड़ेंगे कभी ना साथ तेरा
आज फिर मैं हूँ अकेला.....
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यह कलम, यह भीगते से शब्द कुछ, ये पंक्तियाँ भी
पूछतीं हैं, हो कहीं निःशंक, मुझसे अर्थ अपना
मैं समुन्दर सा, शिलाओं से जो सर टकरा रहा है
और बन निश्चंद्र नभ सा दे रहा हूँ मैं अँधेरा
आज फिर मैं हूँ अकेला.....
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यह अपरिचित शाम, मेरी प्रार्थना शायद यही थी,
मैंने अपनी इक विवशता को कभी संबल कहा था
आज ह्र्दयाकाश पर इक भोर का तारा सजाये
भावना के नीड़ में अब ले रहा हूँ मैं बसेरा
आज फिर मैं हूँ अकेला.....