
कितनी कविताएँ लिखीं, स्याही कितनी बहाई,
कितने कोरे पन्नों पर, रातें बिताईं।
पर दिल की एक हसरत, अब तक अधूरी है,
वो एक कविता, जो सबसे ज़रूरी है।
एक ऐसी कविता, जिसके आगे शब्द न हों,
जिसमें सिमट जाए, ज़माने का हर ग़म, हर ख़ुशी।
हर इंसान की पीड़ा, हर दिल का सूनापन,
हर उम्मीद की किरण, हर डर की सिहरन।
जैसे कोई विज्ञानी, खोजता फिरे बरसों,
वो एक सूत्र, जिसमें बंध जाए, सारा ब्रह्मांड।
गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश, अणु, परमाणु,
सब एक नियम में, सब एक ही विधान।
मैं भी चाहता हूँ, रचूँ वो अंतिम छंद,
जो हर आत्मा का, सच्चा आईना हो।
जिसके बाद कुछ कहना, बाकी न रह जाए,
बस एक मौन स्वीकृति, एक गहरा बोध हो।
हर आँसू, हर हँसी, हर आह, हर दुआ,
हर जन्म, हर मरण, हर रात, हर सुबह,
सब एक लय में ढलें, एक गीत बन जाएँ,
वही गीत, मेरी कलम आख़िरकार गाए।
पर ये समंदर गहरा है, और मैं बस एक नाविक,
कैसे समेटूँ, इस अनंत विस्तार को?
हर बार लगता है, पहुँच गया हूँ पास,
पर फिर एक नया क्षितिज, पुकारता है मुझको।
शायद वो कविता, कभी लिखी न जाएगी,
शायद, ये खोज ही, वो अंतिम कविता है।
बस लिखते जाना है, स्याही सूखने तक,
हर बूँद में, उसी कविता को ढूँढते हुए...
शायद यही अनंत यात्रा है।