देखो मैं भारतीय मज़दूर,
घर जाने को हूँ मजबूर,
देखो मैं भारतीय मज़दूर..
छोटे से बड़े पद धारी,
सियासी खेल में सब मदारी..
एक राज्य से नहीं सम्भला
मेरा 2 रोटी का पेट..
दर-दर राज्यों ने भी
परिवहन लिया समेट,
अब लो हो गया मैं पैदल
बाँध अपने पेट की आग..
कई दिन का पैदल मज़दूर
याद आती गेहूं-रोटी, सब्जी-साग..
देखो मैं भारतीय मज़दूर ..
घर जाने को हूँ मजबूर l
तब सबने था मुझसे काम निकाला..
अब, बद से बदतर किया बोल-बोला..
ना देखी थी धूप, ना देखी थी छाओं,
जब देस की संसद बनाने में
दुखाये थे अपने पाऊँ...
फिर क्यूँ भूल गए ऐ देस के रखवालों..
गुप्त नारा लगा..
'गरीबों को बाहर निकालो'
''गरीबों को बाहर निकालो"..
बाज़ आ जाओ वरना ख़ून के आंसू बहाओगे..
इस ईमानदार मज़दूर को गर,
सियासी मोहरा बनाओगे..
देखो मैं भारतीय मज़दूर..
घर जाने को हूँ मजबूर ll
तेरी एक भूल से,
मैं कई दिन-रात चलता रहा..
कब पहुंचुंगा घर
इन वीरान सड़कों से
यही पग-पग सोचता रहा
के सड़क पर चलते चलते,
मैं क्यूँ मारा जाता
गर वहीँ 2 वक़्त रोटी देते,
तोह भविष्य में, ये ख़ून-पसीना,
तेरे ही तो काम आता..
वायरस का नाम लेकर
मेरी मौत का जाल बिछाया..
मैं भी इक माटी इस देस की
फिर क्यूँ तूने 47 का मंज़र याद दिलाया
देखो मैं भारतीय मज़दूर
घर जाने को हूँ मजबूर l
रेल को दी तब मंज़ूरी
जब चलते-चलते मुझे थकाया,
फिर आंधी आयी औरंगाबाद से
माल है जिसका नाम,
पटरी पर दौड़ती है शान से..
बस यूँही हस्ते-खेलते
कई मज़दूरों के ऊपर से गुज़री..
मेरे घर की थी, मैं आखिरी लाठी
अब वोह भी इस पटरी पर फूटी,
हाय रे मज़दूर.
तेरी भी किस्मत किस देस ने लूटी
देखो मैं भारतीय मज़दूर
घर जाने को हूँ मजबूर
फिर सरकार ने किया एक और जुरम
लगायी कीमत मेरी जान की,
ऐलान हुआ चंद पैसे-टकों का..
बोले ये रही बदनसीब लास, इस चिता की..
मैं आज, कल, और कल देख पाता..
गर तू सरकारी आदमी, सही कदम उठाता ll
देखो मैं भारतीय मज़दूर
घर जाने को हूँ मजबूर.. ll
जिसमें राजनीती करने बैठे हो...
मत भूलो,
उन भवनो को है मैंने सींचा,
फिर तुमको उसमें बिठाकर,
खुद के जीवन-सम्मान को है किया नीचा
फिर भी तुमने मेरी ज़िन्दगी का धागा,
इन वीरान सड़कों पर खींचा.
इन वीरान सड़कों पर खींचा
देखो मैं भारतीय मज़दूर
घर जाने को हूँ मजबूर
देखो मैं भारतीय मज़दूर ll