बहुत खलता है

बहुत खलता है जब छोडना पड़ता है
अपना घर अपना आंगन 
भले ही हो वो शहर मे,या गांव मे
धूप मे या घने जंगल की छांव मे
पक्का पलस्तर चढ़ा हुआ
या फिर कच्चा,टांटर से जड़ा हुआ
गौबर मिट्टी से मढ़ा हुआ
बहुत खलता है जब छोड़ना पड़ता है
अपना घर अपना आंगन
तब और भी ज्यादा खलता है ऐ दोस्त
कि जब तुम्हे कोई जबरदस्ती निकाले
तुम्हारे निवासों से
और ये बताऐ भी ना क्यों निकाले गए तुम 
अपने वासों से
बस जारी करके फरमान ये कहा जाऐ 
छोड़ दो ये जंगल,और निकल जाओ
कट जाओ जड़ों से अपनी,जमाने के साथ बदल जाओ
बहुत खलता है जब छोड़ना पड़ता है
अपना घर अपना आंगन
भला कैसे कोई अपनी जड़ों से कट जाये
क्यों छोड़ दे ये जंगल,जो मूल निवास हैं हमारे
आदिवासी हैं हम यही वास हैं हमारे
यही जंगल रोटी हैं यही जंगल पानी हैं
यही जीने की आस हैं हमारे
उन्होंने खैरात मे नही दिया है ये सब 
हमारे बुजुर्गों ने बनाया है मेहनत से
लगन से प्यार से 
ये घर ये आंगन,अब छोड़ नही सकते हम
और क्यों छोड़ें क्या वो छोड़ सकते हैं
अपनी बस्ती अपना समाज
अपनी रस्में अपने रिवाज, नही ना
तो हम क्यों दें अपना त्याग अपना बलिदान
बहुत खलता है जब छोड़ना पड़ता है
अपना घर अपना आंगन


तारीख: 15.03.2024                                    मारूफ आलम




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है