किसे याद रहता है
श्वास की दो कड़ियों के
बीच का अंतराल?
भला कौन वाचता है
सीने में प्रतिक्षण होता
स्पंदन?
जब प्रेम का आना
और जाना
इतना क्षणिक हो
कि पलक झपकते ही
धंस जाएं
वेदना के गर्त में,
तब प्रेम के
आने से अधिक
हम जीने लगते हैं
प्रेम का जाना.
हम बंद मुट्ठी में
बोने लगते हैं
उंगलियों के पोरों से
रिसता प्रेम.
जब हथेलियां खुलती हैं
वहाँ नहीं मिलते
हरसिंगार के फूल,
वहाँ मिलती है
तो केवल
हरे रंग की दूव,
वही दूव
जिसकी तकिया लगाकर
प्रेमी-जोड़े वाचतें हैं
प्रेम कविताएँ,
जिनके चुम्बनों के मध्य
श्वास की कड़ियों का
बढ़ता अंतराल.......
सहेजता है केवल ईश्वर.