धधक

धधक उठी पय इप्सा मेरी
लिए मन में ज्योति प्रखर,

कर दूं सौरभ सारी भूमि
कहता द्रवित ये कल्पना स्वर,

हूँ अडिग, तमलीन, मै व्याकुल
पथ पर लेकिन तिल तिल शीतल,

भाद्रपद का ये विकल शशि
मेंघो से व्यथित, करता मेरी राह प्रखर,

है पवन की कोमल ठंढक
बहता रागों में निश्चय अविरल,

स्वप्न द्वार से हर छण विस्मित
मै ही हूँ वीरान अमर,

है अब हर बला अधोमुख
अब हैं सारे चोट विफल,

भय की रजनी अस्त हुई
फ़ैल रही चहुंओर किरण।


तारीख: 18.10.2017                                    अंकित मिश्रा




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है


नीचे पढ़िए इस केटेगरी की और रचनायें