धधक उठी पय इप्सा मेरी
लिए मन में ज्योति प्रखर,
कर दूं सौरभ सारी भूमि
कहता द्रवित ये कल्पना स्वर,
हूँ अडिग, तमलीन, मै व्याकुल
पथ पर लेकिन तिल तिल शीतल,
भाद्रपद का ये विकल शशि
मेंघो से व्यथित, करता मेरी राह प्रखर,
है पवन की कोमल ठंढक
बहता रागों में निश्चय अविरल,
स्वप्न द्वार से हर छण विस्मित
मै ही हूँ वीरान अमर,
है अब हर बला अधोमुख
अब हैं सारे चोट विफल,
भय की रजनी अस्त हुई
फ़ैल रही चहुंओर किरण।