दिगंत

सोचा हुआ कहाँ होता है
जिन्दगी में...
वक्त-वे-वक्त चढती हैं
अपनी आकांक्षाएँ
बलिवेदी पर
ठुंठ सा अकेले पडा रह गया हूं
बीच राह पर
क्या क्या उम्मीदें लेकर
चला था उस प्रस्थान से कल
अब नामुमकिन हो गया है चल पाना
बिवाई उतर आए हैं तलुए पर
काली स्याह भरी रात
बिछ गई है सड़क के आर -पार
किसको खबर है
क्या गुजरता है इस निविड़ता में...?

मेरे अन्तस की इस कोलाहल से
परे
बस फैला हुआ आकाश है
दूर दिगंत तक...


तारीख: 04.04.2024                                    वैद्यनाथ उपाध्याय









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