कितनी आसानी से कह दिया करती थी तुम,
" उस अँधेरी रात को मत भूलना
क्योंकि उस जैसी बहुत सी रातें होंगी,
और मत भूलना रात के उस ख़ामोश आसमान को,
जिसकी चमक,
आड़े टेढ़े बिछाये हुए तारों की टिमटिमाहट से
कुछ ऐसे बढ़ जाया करती थी
जैसे उस चौराहे की,
वहां पर लगी लाल बत्ती पर खड़ी गाड़ियों से |
तुम भूल गयी लगता है
पर हम तो कुछ नहीं भूलते हैं
पर क्या तुम्हें याद है कि कैसे उस जून की दोपहर में,
तुमने उस टूटे हुए गिलास में
दिन को निचोड़ कर परोसा था ?
तुम्हें तो शायद वो वक्त भी याद नहीं होगा,
जब महीनों हम तुम्हारे सिरहाने में बैठे रहते थे,
तुम्हें वापस तुम्हारे पैरों पर खड़ा होने की,
एक नाबालिग सी उम्मीद इस दिल में लिए
ऐसा कुछ हो सकता है क्या,
जिससे हमे मुआवज़ा मिल जाये,
उन सभी शामो को बर्बाद करने के लिए ?
जिनमे हम तुम्हें आँख खोलते देखने की
एक आवारा सी चाह लिए
अस्पताल के उस कमरे में शामें गिनते चले गए ?
कुछ तो बोलो माँ...
अच्छा यही बता दो,कि क्या तुम ये देख सकती हो
कैसे हम एक के बाद एक इन कागज़ के टुकड़ों पर स्याही फैला रहे हैं ?
बोलो ना माँ...
तुम फिर सो गयी लगता है
और ये नादान लोग कहते हैं
कि तुम अब हमेशा के लिए सो गयी हो
उन्हें कौन समझाए...