गर तू न होती


गर तू न होती, मैं तो होता, पर मेरे जीने का कोई ठिकाना न होता।
मेरी बातें भी होती, मुस्कान भी होती, पर जीने का कोई बहाना न होता।
होश के उस्ताद होते हम तब, हमारे घर सा कोई आशियाना न होता।
घूमा करते गलियों में समझदारी की चादर ओढ़े, फिर ये दीवाना तो होता, पर दीवाना न होता।

 

आवारगी न होती, बेताबी न होती, मोहब्बत का मुझ पर इल्ज़ाम भी न होता।
मासूमियत न होती, लाचारी न होती, फिर शायद कोई मुकाम भी न होता।
हस्ती कुछ और होती, राहें कुछ और होती, शायद मेरा ये नाम भी न होता।
तुमसे मिलने की वो शाम न होती, वो गुस्ताखी सरेआम न होती, और मैं यूँ बदनाम भी न होता।

 

तू आँखों में न रहती, तू दिल में न रहती, मेरी रूह में तेरा ठिकाना न होता।
तू वादे न करती, कुछ हसरत न करती, जुनूनियत का तेरा नजराना न होता।
तू हमसफर न होती, तू मंजिल न होती, हमारी मोहब्बत का वो तराना न होता।
तू मेरी जान न होती, हमारी एक दास्तान न होती, और मेरे पास तेरा खजाना न होता।

 


तारीख: 09.08.2017                                    विवेक सोनी









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है