प्रवास

भूत से दूर भागता,  अहम की चाशनी में लिपटा
अपनों से नजरें चूराता,   बस खुद में जा सिमटा
गुनगुनी सी धूप में, हर दिन संवेदनाओं का ह्रास
बूढ़े बाप की लाठी तोड़ता, शहरों को महाप्रवास

गांव की उन गलियों में,  वो आंखों से बहा पानी
है पगडण्डी का दर्द,  तूझे रोक लेने की नाकामी
खेतों को त्यागा, बियाबानों में उपवन की तलाश
बूढ़े बाप की लाठी तोड़ता, शहरों को महाप्रवास

बिन बच्चों, पीपल के यौवन पे बेमौसम पतझङ 
वृद्धा की आंखों के सामने पसरा आंगन उज्जङ
बच्चे क्या जानेंगे भूआ से मिले 5 रु का उल्लास
बूढ़े बाप की लाठी तोड़ता, शहरों को महाप्रवास

कूऐं के मेंढक बन कर खुश हैं नदी की मछलियां
इंद्रधनुष छोङ, अपने रंगों पर इतराती तितलियां 
मुक्त आसमां का व्योम से शून्य की और निकास
बूढ़े बाप की लाठी तोड़ता, शहरों को महाप्रवास

होंठ अब भी फङकते होंगे, सूनके फाग के गीत
गहरे दफन करने पर भी मर तो नहीं जाती प्रीत
अभी पनघट ने छोङी नहीं है, तेरे आने की आस
बूढ़े बाप की लाठी तोड़ता, शहरों को महाप्रवास

बैल ताकते हैं जब भी स्टेशन पर आती है गाङी
तेरी खातिर करने को तैयार हैं ये दुगनी दिहाङी
इक बार तो लौट कर आ, हो जाने से पहले लाश
बूढ़े बाप की लाठी तोड़ता, शहरों को महाप्रवास
 


तारीख: 04.07.2017                                                        उत्तम दिनोदिया






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