मैं सिरे से नकारती हूँ...
तेरी इस सत्ता को..
इस दंभ के प्रतिबिंब को
जहाँ मैं....
सदा प्रस्तुत .रहूँ
बाती और तेल की तरह ....
और तुम प्रकाशमान लौ
बन
गढ़ते रहो नए कीर्तिमान!!!!!!
नहीं लिखे जायेंगे....
अब
मुझ पर दयनीय ग्रन्थ,
जिसे
झूठी सिलवटों के साथ
पढ़ कर....
किताबो में ही कैद कर...
गौरवान्वित हुआ जाए!!!!!!!!!!!
नहीं पाओगे मुझे,
या
मेरे किस्से ...
किसी भी नुक्कड़ों पर ....
जहाँ
उन पर
तमाशो के साथ
कहकहे लगाया जाए!!!!!!
तुम नही हो...
मेरे सृजनकर्ता ...
मेरे भाग्य विधाता...
तुम
अब उपसर्ग नहीं रहे...
और मुझे
प्रत्यय बनना .......स्वीकार्य नही....
अब सुनो!!!!!!
मेरी हर हार में..
कटघरे में तुम हो....
मेरी दुर्दशा
हर बार
तुम पर प्रश्चिन्ह उठती है......
मेरी लड़खड़ाहट में...
हर बार
तुम और अधिक गिरते हो !!!!!!
मेरे अश्रुओं से..
तुम्हारा अभिप्राय मिटता है.....
मुझ सी
एक जिन्दगी की मौत में ..
तुम्हारी
अनगिनत मानवता दम तोड़ती है !!!!!