कशमकश

उससे कभी पूछो तो सही,
की इन आँखों को इंतज़ार किसका है।
पहलुओ में छिपा जो रखा है ,
वह आखिर प्यार किसका है।

गैर ही सही हम मगर,
बताओ तो हमे 
ये विरहणी का अवतार किसका है।

हम तो पढ़ते नहीं कभी मगर
छपी है जिसमे खबर तुम्हारी 
वो अखबार किसका है।।

लोगो को ख़बर लगने लगी है
की तुझे नज़र लगने लगी है।
जो सोचा न किसी ने न कभी
आखिर वो विचार किसका है।

कहता है की उसको मोहब्बत सिखा दी मैंने
गर् है तुझे भी मोहब्बत तो
तो दीखता तुझमे जो है वो दीदार किसका है।

गिरी भी कर लेता है तुझ पर भरोसा;
वरना आजकल हसीनाओ पर ऐतबार किसका है।

पतझड़ की तरह बिखरी जुल्फों को
सवारने का अधिकार किसका है।
वैसे भी लुत्फ़ ए मोहब्बत में  मर गए न जाने कितने
मगर जो लौटा दे उनको उस राह से
ऐसा व्यव्हार किसका है।

उसको कभी पूछो तो सही,
इन आँखों को इंतज़ार किसका है।
पहलुओ में छिपा रखा है जो
वह आखिर प्यार किसका है।।


तारीख: 10.06.2017                                    गिरीश राम आर्य




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