सत्ता

जज़्बाती अल्फ़ाज फिज़ा में,
इंसानी जज़्बातो से कुछ यूं,
खेल रहे हैं।

मजहब के परदे के पीछे,
अरमानो का क़त्ल किया,
खून से गूंथ के आटे अपने
अपनी रोटी बेल रहे हैं।
जज़्बातो से खेल रहे हैं।।

गरीबी के काँटों के ऊपर,
बिछा एक पतली सी चादर,
लाचारी तकिये के जैसी।
रोज रोज माखौल बनाते,
सत्ता के माहौल सजाते,
रूमानी गलियारों में सिगार पकड़ कर,
अपनी कीमत बोल रहे हैं।
देश-तराजू तौल रहे हैं।।
 


तारीख: 18.06.2017                                    समीर मृणाल









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