व्यथा

कैसे लाएंगे उसको अब वापस
समय जो व्यतीत हो चला है
बचाते रहे मिटने से, हाथों की लकीरों को
खेल अब यह बड़ा कठिन हो चला है
बुझे हुए चिरागों से जलाए थे कभी अपने हाथ
पुराना दाग,जो अब प्रस्फुटित हो चला है 
दिल दुखता है यह मंजर देखकर
आदमी दुनिया में खुदा हो चला है
 सूखे दरखतों को ये डर था
 जल जाएंगे एक दिन,
 चिता की लकड़ी बनकर
 मगर यह इत्मीनान था उन्हें 
 साथ उनके, कोई और भी जला है
जलाए थे बड़े उम्मीदों से हसरतों के चिराग
आंधियों से हमेशा धोखा मिला है


तारीख: 27.03.2025                                    प्रतीक बिसारिया




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