देख रहा हूं एक सुनयना - विमल शर्मा 'विमल'

देख रहा हूं एक सुनयना, 
गुमसुम बैठी सड़क किनारे...

विस्मृत होती जाती खुद से 
कुछ तो अंदर टूट गया है।
या जीवन के दुर्गम पथ पर 
कोई साथी छूट गया है।
कुछ तो क्षितिज छिपाए बैठा
जो ये अपलक उसे निहारे।

देख रहा हूं एक सुनयना, 
गुमसुम बैठी सड़क किनारे...

कर्मठता की दिव्य मूर्ति ये,
दिवा स्वप्न में खोई क्यों है।
कटी हुई हैं कोर नयन की,
आखिर इतना रोई क्यों है।
कितने शूल चुभे पैरों में 
किससे बोले,किसे पुकारे।

देख रहा हूं एक सुनयना, 
गुमसुम बैठी सड़क किनारे...

पावस के पंक प्रयासों से,
सारी ऋतुएं सजल हो गईं।
दिनकर फिर से उगा ही नहीं,
रातें इतनी प्रबल हो गईं।
आलिंगन बस करती वसुधा,
आगे बढ़कर बाँह पसारे।

देख रहा हूं एक सुनयना, 
गुमसुम बैठी सड़क किनारे...

स्वेद बिंदु अलकों को छूकर, 
जो रेख बनाते गालों पर।
रेख नहीं वह प्रश्न चिन्ह है, 
मानवता के इन छालों पर।
तरुणाई वैधव्य ढो रही,
निज कंधों पर, बिना सहारे।

देख रहा हूं एक सुनयना, 
गुमसुम बैठी सड़क किनारे...

- विमल शर्मा 'विमल'


तारीख: 09.01.2025                                    विमल शर्मा विमल




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है