मौज कर रही
है दीवाली
दीपों की बस्ती में।
चले काफिले
उजियारे के
द्वारे द्वारे।
टकटकी लगाकर
अंबर-
धरती को निहारे।।
हैं सजे धजे
ये उत्सव जैसे
आज परस्ती में।
माटी के दीपक
घर में महके
फूलों से।
आहट मिलती
है शायद
तम की भूलों से।।
हैं बम-फुलझड़ियाँ
खील-बताशे
सभी गिरस्ती में।
तारों से
टिम टिम करते हैं
दीपक सारे।
किरणपुंज ज्यों
अंधकार की
और निहारे।।
हैं कलगी जैसी
लगी हुई
लोगों की हस्ती में।
हमेशा अमावस
तिमिर के
घूँट पीता है।
सन्नाटे का घट
कुछ कुछ
रीता रीता है।।
पतवारों की
हैं लाचारी
छेद हुआ कश्ती में।