
( देव घनाक्षरी छन्द )
मानवता मर गई है
आदत अज़ीब जगन्नाथ जुल्म करने की,
छुआछूत भेदभाव भय भव भारी भरत।
पूजा पाठ करने को महान मानुष आया,
पहले पूरे पाँच लाख दान-दक्षिणा करत।
प्रतिमा पत्थर की क्यों मन पे पाथर पड़ा,
बुजुर्ग बेचारा बैठा पूजा पौड़ी पर करत।
जातिवाद ज़हर जन्म-जन्म से सहते हैं,
कुलीन कातिलों का कैसे “मारुत” मन मरत?