प्रदेश  का नया ज़हर

 

गाँव की मिट्टी अब उगाती है, कुछ और ही फसलें भाई,
लड़कों के झुंडों में दिखती, बारूद की नई परछाईं।
उम्र कच्ची, आँखें वहशी, ना डर है, ना कोई लगाम,
पीठ-पीछे खोंसा कट्टा, सुबह हो या ढलती शाम।

मोटरसाइकिलें साँप सी रेंगें, धूल उड़ातीं गलियारों में,
शौक से करते फायर हवा में, दहशत भरते बाज़ारों में।
रातों को जब नींद गहरी हो, दारू की खेपें चलती हैं,
फिर नशे में चूर वही लड़के, गलियों में आग उगलती हैं।

चीख़ें, गाली, झगड़े, मारें, रोज़ का ये तमाशा है,
कौन सुने, कौन रोके इनको, हर कोई सहमा, हताशा है।
कानून का डर जैसे मर गया, या बिक गया किसी मंडी में,
ज़िंदगी सस्ती हो गई है, इनकी खूनी गुंडागर्दी में।

कभी चंद नोटों की ख़ातिर, उठा लेते हैं सुपारी भी,
अनजान किसी की छाती में, उतार देते हैं कटारी भी।
ये नया ज़हर जो फैल रहा, बिहार की साँसों में देखो,
कैसे बचपन छीन रहा है, कैसे घर आँगन को देखो।

हर चौखट पर डर का पहरा, हर दिल में एक अनजाना भय,
ये उगते अपराधी पौधे, कर देंगे सब कुछ प्रलय।
सोचो, किस ओर जा रहा है, ये अपना गाँव, अपना देस?
जहाँ जवानी भटक रही है, पहने मौत का ये भेस।


तारीख: 02.06.2025                                    मुसाफ़िर




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