मैं ज़िंदा हूँ! मेरा वजूद मिट चुका !
क्या मुझमे अभी जान बाकी है ?
जो इंसान को इंसान समझे,
क्या ऐसा कोई इंसान बाकी है ?
कभी बाहर, कभी दफ़्तर,
कभी सुनसान सड़को से घबराना मेरा !
मैं भूल गयीं हूँ, अभी मेरे घर में मेहमान बाकी हैं।
कुछ देर कुछ वादे किये, फिर कुछ कानून बना दिये,
मैंने मौन रहना छोड़ा, और हथियार नाख़ून बना लिए।
अब घर सुरक्षित नहीं लगता, गलियां सुनसान बाकी हैं।
कब तक दूसरों के सहारे जियूँ,
कब तक समाज की बेड़ियों को सियूँ,
दीवारों से पार चीखें सुनते मेरे कान बाक़ी हैं।
दर्द सहन छोड़ दिया, बोलना सीख लिया है,
बस सोचने लगीं हूँ मैं "गिरी",
क्या इंसानियत दफ़्न हो चुकी है ?
या अभी भी कोई बेनक़ाब इंसान बाकी है।