रणभेरी


आज मैं जो चल पड़ा 
रोक न मुझको ज़रा 

इच्छा हूँ मन में पालता 
निद्रा में प्रतिक्षण जागता 
तुझको सुलाने चैन से 
दूर देश मैं निकल पड़ा 

आज मैं जो चल पड़ा 
रोक न मुझको ज़रा 

माना कि हस्त न शस्त्र हैं  
न अश्वों के मेले यहाँ 
हाँथों से जोड़ी हाँकता 
खेतों में रण को भाँपता 
नीड़ का निर्माण फिर फिर 
आज मैं करने चला !

आज मैं जो चल पड़ा 
रोक न मुझको ज़रा 

लाशें हिलाऊँगा यहाँ 
उनको जगाऊँगा वहाँ 
ओढ़े जो बैठे कफ़न हैं 
दुनिया दिखाऊँगा यहाँ 
चल पड़ूँगा ! मौत ओढ़े 
चिन्ह ध्वज का रूप सा 
बताऊँगा ! हूँ मैं क्या ?
मुझको समझ न धूल सा 

आज मैं जो चल पड़ा 
रोक न मुझको ज़रा 

फाल हल का गाड़ दूँगा 
क्षण में ही मिथ्या छाती में 
दुःस्साहस वीरता का है 
द्योत्तक 
लोहा जो लेने मैं चला 

काल की उत्पत्ति से 
उदरपूर्ति करता रहा 
भूखा हूँ मैं जो स्वयं आज 
वर्तमान ही डसता रहा 

भरने लगे अपने गोदाम 
मेहनत के मेरे आड़ में 
प्रतिक्षण चढ़ायें वे मुझे 
सूखे चने के झाड़ पे 
काटने को 'कल्पवृक्ष'  
अर्धनिद्रा फिर जगा 
लेकर कुल्हाड़ी हाथों में 
आसमां चमका रहा 

आज मैं जो चल पड़ा 
रोक न मुझको ज़रा 


तारीख: 30.07.2017                                    ध्रुव सिंह एकलव्य









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है