शब्द कंठ में फंसे हुए,
कर्ण ध्वनि में लगे हुए,
चक्षु खोजते है, पहर पहर
क्या स्त्री होना अभिशाप हमारा है!
इन प्रश्नो का क्या उत्तर दूँ ,
जो नेत्र घूरते है हमको,
जिस वाणी ने भेदा हमको
जिन स्पर्शो ने रौंधा हैं
वो तो अर्धांश हमारा हैं
हमसे ही पनपा एक तारा हैं!
कैसे याद दिलाऊं मैं,
स्त्री हर स्वरुप में सुन्दर है,
उसका वज्र ढ़ाल समर्पण है!
स्वयं शून्य हो, पूर्ण किया जिसने,
उसका चरितविस्तार किया तुमने !
किंचित वाणी में बल क्या पाया,
उसके मन का, जिव्ह्या पर क्या आया,
उसको तुमने धिक्कारा है,
इन परिवेशों में नवसमाज विस्तारा है!
चंद शब्द हमारी वाणी में,
चंद प्रहर हमें उधारी में,
क्यों समाज में ये बटवारा है!
क्या स्त्री होना अभिशाप हमारा है!
थोड़ा ठहरो और विचार करो,
प्रारम्भ सृस्टि का हम से है,
अंत सृस्टि का हम पर है,
तो जिस डाली पर हो चढ़े हुए,
उसके कटने पर कैसा मौन तुम्हारा है,
जीवन की यदि हो अभिलाषा,
इसको सींचो और दुलार करो,
क्योंकि, इतिहास सदा यह कह आया,
स्त्री सामान जो न कर पाया
कह कमजोर मूक बधिर बन रह पाया
उसका विनाश तो निश्चित है
किंचित ही उसका शव कन्धा पाये,
वंश शेष यदि कोई रह जाये
या बड़ों की शया पर म्रत्यु बुलाये !