भ्रष्ट्राचार का अड्डा

 

 

भ्रष्टाचार का अड्डा 

 

सुबह-सुबह रामलाल निकले,

फाइल पकड़ कर हिम्मत सिकेले,

सोच रहे थे—"आज तो पक्का,

सरकारी दफ़्तर में काम निकले!"

 

पहुँचते ही देखा बाहर मेला,

लंबी-लंबी कतारों का झमेला,

किसी के हाथ में चाय का प्याला,

तो कोई घूस के नोटों में खेला।

 

रामलाल बोले—"जनाब,

मैं तो बस एक छोटा किसान,

काग़ज़ जमा करना आया हूँ,

दो दिन से खा रहा परेशान।"

 

क्लर्क मुस्काया, बोला धीमे,

"काम यहाँ होता है सलीके से,

फॉर्म तो बिल्कुल सही है,

पर सील लगेगी फीके से।"

 

रामलाल बोले—"सील लगाओ,

समय न गँवाओ,

पेंशन मिलेगी मेरी माँ को,

उसका हक़ दिलवाओ।"

 

क्लर्क ने हँस कर सिर हिलाया,

"भाई, सील का रेट तय आया,

पाँच सौ रुपए रख दो टेबल पर,

तभी तो आगे काम बढ़ाया।"

 

रामलाल घबरा कर बोले—

"साहब! मैं तो गरीब किसान,

इतने पैसों का इंतज़ाम कहाँ,

बस थोड़ी पेंशन दिलवा दो जान।"

 

क्लर्क ने गुस्से से डाँटा,

"बिना चढ़ावे सब है बाँटा,

काग़ज़ यहीं पड़ा रहेगा,

फिर चाहे सौ बार आटा।"

 

बगल के बाबू बोले हँसते,

"रामलाल, क्यों बैठे फँसते,

नोट निकालो, काम बनाओ,

वरना यहाँ सालों तक धक्के खाओ।"

 

रामलाल सोचें—"वाह री दुनिया,

यहाँ ईमानदारी है सूना,

जिस देश का नाम है भारत,

यहाँ नोटों से ही निकलता रास्ता।"

 

वो जेब टटोलें, निकले सिक्के,

बाबू बोले—"ये तो हैं खट्टे-मीठे टिक्के!

सील नहीं लगेगी इनसे,

चलो भागो, निकले जल्दी फिनसे।"

 

आख़िरकार उन्होंने उधार लिया,

नोट निकाल कर काम किया,

फाइल आगे बढ़ी झटपट,

जैसे तेल पाकर गाड़ी चला।

 

 

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कटाक्ष

 

ये दफ़्तर भी है अजब तमाशा,

जहाँ जनता रोए, अफ़सर हँसे भाषा।

सच और झूठ का कोई मोल नहीं,

बस नोट गिनो—बाक़ी बोल नहीं।

 

 

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तारीख: 28.09.2025                                    विजय शर्मा ऐरी




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