
तुम शायद कभी न पढ़ो
मेरी लिखी कविताएँ,
जो मैंने तुम्हारे नाम
अनजाने अक्षरों में सँजो दी हैं।
वे शब्द,
जिनका अर्थ बस तुम्हारी आँखों में बसता है,
तुम तक पहुँचने का
एक ख़ामोश प्रयास हैं।
मैं तुम्हें ये कविताएँ
ख़ुद कभी नहीं दूँगा पढ़ने को,
जैसे मैंने मसूरी के एक
छोटे-से कॉफ़ी हाउस में,
विज़िटर डायरी के अनगिन पन्नों के बीच
रख दिए हैं संदेश तुम्हारे लिए—
ठीक उसी तरह।
मैं नहीं बताऊँगा तुम्हें
उस कॉफ़ी हाउस का नाम,
न ही वो टेबल
जहाँ धूप की एक किरण
ठीक दोपहर में गिरती है,
और न ही वो खिड़की,
जिसके पार हिमालय के शिखर
कभी-कभी बादलों के परदों में छिप जाते हैं।
मैं चाहूँगा,
तुम खोजते-खोजते
यूँ ही जा पहुँचो वहाँ—
किसी अजनबी दोपहर या शाम,
जब बारिश की हल्की फुहार
मसूरी की गलियों को भिगो रही हो,
और तुम अचंभित हो जाओगी
उस डायरी के पन्नों पर
छपे मेरे शब्दों को देख।
मेरी कविताएँ
तुम्हारे इंतज़ार में होंगी,
जैसे धुँध के पीछे छिपा
किसी गुमशुदा याद का टुकड़ा—
तुम शायद ना समझो उनकी भाषा,
या शायद वो तुम्हारे दिल की धड़कनों से
मिल जाए अपना सुर।
मैं नहीं जानता,
क्या तुम वहाँ तक पहुँचोगी कभी,
पर मेरी कविताएँ
अपनी जगह थमी रहेंगी—
अनकही,
अनसुनी,
बस यूँ ही—
तुम्हारी राह तकती हुई।