
कल करे सो आज कर,
आज करे सो अब...
अजी छोड़ो ऐसी बातें,
मेरा तो बस,
चलता है सब राम-भरोसे।
अलार्म बजता है,
मैं 'स्नूज़' दबाता हूँ,
दस मिनट और...
फिर दस मिनट...
फिर एक घंटा...
फिर उठकर सोचता हूँ,
"देर तो हो ही गई, अब क्या फ़र्क पड़ता है?"
काम का ढेर,
जैसे पहाड़ खड़ा हो सामने,
मैं देखता हूँ उसे,
वो देखता है मुझे।
हम दोनों में,
एक मौन समझौता है:
"आज नहीं, कल देखेंगे।"
चाय बनाता हूँ,
धीरे-धीरे,
जैसे हर घूँट में
एक बहाना छिपा हो।
फिर लैपटॉप खोलता हूँ,
एक ईमेल, दो ईमेल…
मन भटक जाता है—
यूट्यूब, इंस्टाग्राम…
समय बहता जाता है, रेत की तरह।
दोपहर का खाना,
बेमन से,
जैसे बस पेट भरना हो,
ज़िंदगी का स्वाद,
कहाँ खो गया, पता नहीं।
फिर वही शाम,
वही थकान,
वही अधूरापन।
सोचता हूँ,
"कल सब ठीक हो जाएगा,"
"कल मैं बदल जाऊँगा।"
पर कल,
फिर वही आज बन जाता है,
वही चक्रव्यूह, वही आलस,
वही 'बस किसी तरह' वाला रवैया।
शायद ये 'कल'
कभी आता ही नहीं,
या शायद
मैं ही उसे
आने नहीं देता।
बस यूँ ही चलता रहेगा,
ज़िंदगी कटती रहेगी...
कम से कम... जब तक…