जा,
मैं तुझसे फिर कभी नहीं मिलूंगी,
न कभी तेरा कोई सतरंगी ख्याल बन कर
तेरे कैनवस पर कोई चित्र बन उभरूंगी !
न कभी तेरे किसी गीत में,
फूल, तितली, बहार और प्यार को
सहेजकर रचे गए भावों में बस
तेरे दिल के बोल बन उतरूंगीं!
न कभी तेरे उपन्यास की
किसी कहानी के
किसी शोख किरदार में अदाएं लुटाती
उसके रोमांटिक मूड में बसूंगीं!
न कभी तुझे सागर समझ
एक नदी की तरह प्यास से बेचैन,
तुझसे मिलने को बेताब
बदहवास होकर कलकल करती बहूंगी !
न कभी तुझे आसमान समझ
धरती की तरह
तेरे विशाल आगोश में
समा जाने को आतुर तुझे तकती,
एक इंद्रधनुष बन तुझ तक पहुचूंगी !
न कभी तुझे प्रेम समझ ,
तुझे पाने को स्वयं के अस्तित्व को भुला,
तेरे चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण कर ,
तुझे अपना ईश्वर बना,
अपनी हर आती-जाती
सांस के मनकों की माला बना
हर पल तेरे नाम का मंत्र जपूंगी !
मैं सचमुच तुझ से अब कभी नहीं मिलूंगी!
मैं अपनी कहानी स्वयं लिखूंगी !
मैं अपना कैनवस स्वयं रंगूंगी !
मैं अपना गीत स्वयं गढूंगी!
मैं अपना सागर स्वयं बनूंगी!
मैं अपना आसमान स्वयं रचूंगीं!
मैं अपना ईश्वर स्वयं रहूंगीं!
क्योंकि हर प्रेम कहानी में
अमृता-इमरोज़ का सा इश्क हो,
ज़रूरी नहीं !