विरह-गीत :
मद्धम, मद्धम हवा चली है, जाने कहाँ तक जाएगी,
क्या वो मेरे प्रियतम तक संदेश मेरा पहुँचाएगी!
जपती रहती माला तेरे नाम की मैं हर पल साजन,
बहती है अश्रु की धारा नैनों से कल-कल साजन,
सुध-बुध खोकर, बेसुध होकर, राह तेरी मैं तकती हूँ,
जलती रहती विरह की अग्नि में होकर पागल साजन ।
इस विरही के मन की पीड़ा, कैसे उसे बताएगी,
क्या वो मेरे प्रियतम तक संदेश मेरा पहुँचाएगी!
जब रूठूँ मैं तुमसे तुम मुझको इस तौर मनाते थे,
गीत, ग़ज़ल गाकर अपनी तुम मेरा मन हर्षाते थे,
जब-जब मैं लज्जा से अपनी पलकें कभी झुकाती थी,
याद है मुझको, तुम रिमझिम बरखा सा प्रेम जताते थे।
जैसे मुझको आती है क्या याद उसे भी आएगी
क्या वो मेरे प्रियतम तक संदेश मेरा पहुँचाएगी!
जब तेरे नाज़ुक होंठों पर अपने होंठ सजाए थे,
चाँद, तारें नभ के सारे तुझमें नज़र मुझे आए थे।
हौले से हाथों से अपने हाथ जो तुमने थामे थे,
तब मेरे दिल ने ज़ोरो से ढोल-मृदंग बजाए थे।
इस बंजर भूमि की तृष्णा क्या फिर से बुझ पाएगी,
क्या वो मेरे प्रियतम तक संदेश मेरा पहुँचाएगी!
जो तू संग ना है मेरे तो हर सावन भी सूखा है,
बिन तेरे ; मेरे जीवन का हर भादो भी रूखा है,
किससे मन की बात कहूँ, अपना ये हाल बताऊँ मैं,
जैसे मैं 'नदिया' प्यासी हूँ, क्या सागर भी सूखा है?
जो बीती है मुझ पर, वो जाकर क्या उसे सुनाएगी,
क्या वो मेरे प्रियतम तक संदेश मेरा पहुँचाएगी!