हौले - हौले, धीरे - धीरे अपनी मुंदी आंखों को खोल,
बिना पंख दुनिया में आया, छोटा सिमटा अंडा तोड़,
पेड़ पर छोटा घरौंदा ,ऊपर तारों का ताना-बाना,
सूरज की चमकती किरणें, धूल में सिमटा ठिकाना
अचरज में मां से पूछता - क्यों नहीं मेरे पर हैं?
शहर के इस शोरगुल में, क्या यही मेरा घर है?
तेरे नन्हे से घरौंदे में मैं डरता सिमटता सा जाता हूं,
हर आहट में चौंकता हूं तुझे हर आहट में पुकारता हूं,
पर हर सुबह तू मुझसे आखिर क्यों रूठ जाती है?
इंसानों की भीड़ में अकेला छोड़, घरौंदे से क्यों उड़ जाती है?
अचरज से मैं हूं पूछता - क्यों नहीं मेरे पर हैं?
शहर के इस शोरगुल में, क्या यही मेरा घर है?
क्या मेरे पेट की ज्वाला के लिए, तू घरौंदा छोड़ उड़ती है?
आखिर क्यों मेरी ठंड भी, तेरी बाहों में आकर ही टूटती है?
और कोई तो मेरा साथ नहीं देता, तो तू क्यों निभाती है?
शहर के इस शोरगुल को, मधुर मीठी तान क्यों बनाती है?
अचरज से मैं हूं पूछता - क्यों नहीं मेरे पर हैं?
शहर के इस शोरगुल में, क्या यही मेरा घर है?