कुछ स्याही के धब्बों से शुरू हुई ,
एक बेरंग काग़ज़ को रंगने की वो दास्तान ,
भावनाओं के उमड़ते सैलाब में खुद को तराशती,
आसुओं की चंद बूँदों को खुद में सोखती,
मन में पनपते ख़यालों की मोहताज़ वो अधूरी कविता|
चंचल ख्वाहिशों को वजूद देती,
अंधेरों से सवेरों के फ़ासले को धूमिल करती,
उमीदों के आयने को कभी चमकाती तो कभी चूर-चूर करती,
उजड़े दायर में भी सुमन कयि महकाती,
काग़ज़ और कलम की मोहताज़ वो अधूरी कविता|
शब्दों के संगम में बिखरी कई यादें,
कई चीखें कई अनकही बातें,
उलझनों में उलझी इस ज़िंदगी को कुछ सुलझाती,
अंतरात्मा को काग़ज़ की सिलवटों से मिलाती,
लिखने वाले के हाथों की मोहताज़ वो अधूरी कविता|