बादल

बादल घिर घिर कर आते हैं
यूं चहुं और छा जाते है
चंदा को ढ़ककर घूंघट मैं
ये कैसा रास रचाते हैं
देख प्रकृति की सोभा को
मैं धन्य धन्य हो जाता हूँ
मन ही मन मुस्काता हूँ।

सूखी धरती अकुलाती है 
प्रिये को पास बुलाती है
लेकर नवजीवन के सपने
वो दुल्हन सी शरमाती है।
मैं बैठा अपनी खिड़की पर
गीत मिलन के गाता हूँ
मन ही मन मुस्काता हूँ।

नदियाँ तटबंध गिराती हैं
उल्लास से उछली जाती हैं
गिरती हैं  बूंदें बादल से
दरिया मैं मिलती जाती हैं 
इस छण को यादों के पन्नों 
मे लिखता जाता हूँ
मन ही मन मुस्काता हूँ।

पेड़ों पे  पंछी गाते हैं
सावन के गीत सुनते हैं
जंगल मैं मोरों के नर्तन
सबके मन हर जाते हैं।
देख धरा के इस योवन को
खुद को ही खो जाता हूँ
मन ही मन मुस्काता हूँ।
 


तारीख: 26.02.2024                                    मोहित नेगी मुंतज़िर









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