आषाढ़ का एक दिन

 

प्रस्तावना: आधुनिक हिन्दी रंगमंच का मील-पत्थर


यह 1958 का नाटक हिन्दी रंगमंच की आधुनिकता का उद्घोष माना जाता है—“पहला आधुनिक हिन्दी नाटक” कहना अतिशयोक्ति नहीं। इसे 1959 में संगीत नाटक अकादमी-सम्मान भी मिला; बाद में 1960 में श्यामानन्द जालान के ‘अनामिका’ समूह ने प्रथमतः मंचित किया, और 1962 में इब्राहीम अल्क़ाज़ी के निर्देशन ने इसे और प्रतिष्ठित किया। 

 

कथा-भूमि (बिना स्पॉयलर के भी परतदार)


तीन अंकों में फैली कथा कालिदास और मल्लिका के प्रेम, कला और वरण-अवरण की कहानी है। पहला अंक—हिमालयी ग्राम का सादा, नम-हवा-सा जीवन; दूसरा अंक—उज्जयिनी के दरबार की राजनीति और वैभव; तीसरा—वर्षों बाद वापसी, अपराधबोध और विछोह के घाव। आलोचकों ने ठीक कहा है कि हर अंक छोड़ देने के एक क्षण पर समाप्त होता है—कला के उत्कर्ष के साथ निजी जीवन का मौन पराभव। 

 

प्रमुख पात्र व उनकी धुरी


•  कालिदास — कला और कीर्ति के बीच फँसा मनुष्य; दरबार की चकाचौंध में रचनात्मक स्रोत से दूरी का संकट। 
•  मल्लिका — प्रेरणा, इंतज़ार और स्वाभिमान की देहधारी त्रासदी; अन्ततः वह विलोम से विवाह कर लेती है—समझौते और आत्म-सम्मान के बीच झूलती हुई। 
•  विलोम — सवाल पूछने वाला, अवसरवादी, पर पूर्णतः खल भी नहीं; यथार्थ का कठोर दूत। 
•  प्रियंगुमञ्जरी — राजकन्या/पत्नी; कला के “मूल परिवेश” की भरपाई करने की असफल चेष्टा, जिससे कलाकार का अकेलापन और उभरता है। ()


शीर्षक का अर्थ और काव्य-सन्दर्भ


“आषाढ़”—बरसात की शुरुआत; नाम मेघदूत के श्लोक से प्रतिध्वनित। नाटक लगातार दिखाता है कि मेघ, वर्षा, भीगना—ये सब रचना-स्रोत के प्रतीक हैं; उज्जयिनी जाते ही यह नमी सूखने लगती है। ()

 

थीमैटिक हार्टबीट


•  कला बनाम सत्ता/प्रतिष्ठा: दरबार कलाकार को संसाधन देता है, पर उसी क्षण वह उससे उसके ‘भीतर के मौसम’ की माँग करता है। ()
•  प्रेरणा का नैतिक मूल्य: रचना सिर्फ़ प्रतिभा नहीं; वह सम्बन्धों की देन है—और उन सम्बन्धों की कीमत भी। ()
•  छोड़ देना/त्याग की संरचना: तीनों अंकों के अन्त में त्याग—पहले स्वप्न का, फिर सम्बन्ध का, फिर परिशुद्ध मिलन की सम्भावना का। ()

 

शिल्प और भाषा


राकेश का संवाद मंच-योग्य, बोलचाल की ऊर्जा से भरपूर—न नाटकियता का कोलाहल, न साहित्यिक क्लिष्टता का बोझ। समय-अन्तराल (अंक-दर-अंक वर्षों की छलाँग) नाटक को जीवन-सार की संक्षिप्तता देता है—एक दिन का शीर्षक, पर अनेक ऋतुओं की गिरहें। ()

 

अभिनय/मंचनीयता पर एक नोट


इतना संवेदी माइक्रोड्रामा है कि हल्की अतिनाटकीयता भी उसके नाज़ुक तंतु तोड़ सकती है। निर्देशक के लिए मौन, विराम और वर्षा-ध्वनि खुद किरदार हैं। 1971 में मणि कौल ने इसी संवेदना को सिनेमा में बरखा की नमी और लम्बे सन्नाटों से साधा; फ़िल्म ने क्रिटिक्स फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड भी पाया। ()

 

“भावानुवाद” संवाद-खिड़कियाँ


(नीचे के अंश रचना-शैली में प्रेरित/पुनर्सृजित हैं, पाठ से ज्यों-का-त्यों उद्धरण नहीं—कॉपीराइट/मौलिकता का ध्यान रखते हुए।)


1.  मल्लिका–कालिदास (अंक-1): “जब बादल यहीं उमड़ते हैं, तुम उज्जयिनी की छत क्यों ढूँढ़ते हो?—‘कीर्ति’ का जल भीगाता नहीं, बस चमकाता है।”
2.  अम्बिका–मल्लिका: “बेटी, प्रेम का छज्जा टिकता है तो विवाह के खंभों पर ही।” — “अम्मा, कुछ घर दहलीज़ के बिना भी तो रहते हैं।”
3.  विलोम–कालिदास: “कविता में जिनका नाम नहीं आता, वे इतिहास में नोट ले लेते हैं—तुम कविता लिखो, मैं नोट लिख लूँगा।”
4.  प्रियंगुमञ्जरी–मल्लिका (अंक-2): “हम तुम्हें दरबार में जगह दिलाएँगे।” — “महारानी, जगह दिलाने से पहले जगह देना सीखिए।”
5.  कालिदास–स्वगत (अंक-3): “लौटा हूँ तो पाया है कि मार्ग की जीत ने मंज़िल का घर उजाड़ दिया।”

 

क्यों पढ़ें/देखें?


क्योंकि यह नाटक हमें कलाकार के मानवीय अपराधबोध और उसकी रचना के सामाजिक-नैतिक ऋण पर सोचने को विवश करता है। साथ ही, यह बताता है कि प्रेम सिर्फ़ निजी अनुभूति नहीं—एक ऐतिहासिक शक्ति भी है जो पूरे काव्य-कोश को जन्म दे सकती है (मेघदूत, कुमारसंभव, शकुंतला की अनुगूँज)। ()

 

छोटी-छोटी आपत्तियाँ


कहीं-कहीं दरबारी विमर्श की बारीकियाँ आम दर्शक से थोड़ी दूरी बना सकती हैं, और कुछ प्रस्तुतियों में विलोम का चरित्र-विकास एक-पल्ली लग सकता है। पर पाठ के स्तर पर राकेश इन सूक्ष्मताओं को बख़ूबी साधते हैं।

 

निष्कर्ष


“आषाढ़ का एक दिन” पढ़ना/देखना मतलब: प्रेम के भीगे पलों और कीर्ति की तपती धूप के बीच फँसे एक कलाकार की आत्मकथा—जो जितनी कालिदास की है, उतनी ही मल्लिका की भी। यह नाटक आज भी पूछता है: हम कीर्ति के लिए किसे छोड़ते हैं—और छोड़ने के बाद बचता क्या है?
 


तारीख: 16.08.2025                                    लिपिका




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