नदी के द्वीप

नमस्ते, मैं लिपिका!


एक मुसाफ़िर होने के नाते मैंने अक्सर महसूस किया है कि हमारी ज़िंदगी भी एक नदी की तरह है। कभी शांत, कभी तूफ़ानी, और हम सब इस नदी के बीच खड़े अलग-अलग द्वीप हैं। हमें आकार देती है, हमारी सीमाएँ बनाती है, हमें पोसती है, और कभी-कभी हमसे टकराकर हमारा कुछ हिस्सा बहा भी ले जाती है। पर हम नदी नहीं हैं। हम द्वीप हैं। हमारी अपनी एक सत्ता है, एक पहचान है।
अज्ञेय का उपन्यास 'नदी के द्वीप' जब मेरे हाथ में आया, तो मुझे लगा जैसे किसी ने मेरी इसी भावना को शब्द दे दिए हों। यह कोई कहानी नहीं, बल्कि प्रेम, स्वतंत्रता और अस्तित्व के मनोविज्ञान का एक गहरा, ठहरा हुआ समंदर है। एक थिएटर और सिनेमा प्रेमी होने के नाते, मुझे हमेशा वो कहानियाँ खींचती हैं जो किरदारों की आत्मा में उतरती हैं, और 'नदी के द्वीप' पढ़ना किसी मनोवैज्ञानिक नाटक को देखने जैसा ही था, जहाँ सारा एक्शन किरदारों के मन के भीतर घट रहा था।
कहानी नहीं, चार द्वीपों का मनोविज्ञान
यह कहानी है चार किरदारों की, जिन्हें मैं किरदार नहीं, बल्कि चार द्वीप कहना पसंद करूँगी: भुवन, रेखा, गौरा और चंद्रकला।
 

 

भुवन: एक वैज्ञानिक, जो हर चीज़ को तर्क की कसौटी पर कसता है। वह एक बड़ा, स्थिर द्वीप है, जो अपनी बौद्धिकता और एकांत को सहेजे हुए है। वह प्रेम को भी किसी वैज्ञानिक प्रयोग की तरह समझना चाहता है, उसके हर पहलू का विश्लेषण करना चाहता है। लेकिन जब भावनाओं की नदी ज़ोर मारती है, तो उसका सारा तर्क बहने लगता है।

 

रेखा: मेरे लिए इस उपन्यास की आत्मा। एक आधुनिक, स्वतंत्र और साहसी स्त्री, जिसका अतीत उसे एक ज़ख्मी द्वीप बना देता है। वह समाज के बनाए नियमों से टकराई है, उसने प्रेम किया है, और उस प्रेम की क़ीमत भी चुकाई है। भुवन के साथ उसका रिश्ता बौद्धिक भी है और भावनात्मक भी। वह समर्पण करना चाहती है, लेकिन अपनी पहचान खोने से डरती है। एक तीस वर्षीय महिला के तौर पर, मैं रेखा के इस द्वंद्व से ख़ुद को बहुत गहराई से जोड़ पाती हूँ – प्रेम में पूरी तरह डूब जाने की चाह और अपने 'स्व' को बचाए रखने की ज़िद।

 

गौरा: एक शांत, निर्मल और हरा-भरा द्वीप। उसका प्रेम निश्छल है, उसकी भक्ति में कोई शर्त नहीं। वह भुवन से एकतरफ़ा प्रेम करती है और चुपचाप अपनी जगह पर स्थिर रहती है, एक ऐसे किनारे की तरह जो हमेशा बाहें फैलाए इंतज़ार करता है।

 

चंद्रमाधव: एक लेखक, एक दार्शनिक। वह एक ऐसा द्वीप है जो नदी के प्रवाह और दूसरे द्वीपों को तटस्थ होकर देखता है और उन पर टिप्पणी करता है। वह कहानी का सूत्रधार भी है और उसका एक हिस्सा भी।

 

दर्शन की गहराइयों में: द्वीप और धारा का रिश्ता


यह उपन्यास अपनी इस एक पंक्ति में सिमटा हुआ है:

"हम नदी के द्वीप हैं। हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए। वह हमें आकार देती है... हम धारा नहीं हैं। स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।"

अज्ञेय यहाँ मानव अस्तित्व के सबसे बड़े विरोधाभास को पकड़ते हैं – जुड़ने की गहरी इच्छा और अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने की उतनी ही प्रबल ज़रूरत। ये चारों किरदार एक-दूसरे से जुड़ना चाहते हैं, एक-दूसरे में विलीन होना चाहते हैं, लेकिन उन्हें डर है कि ऐसा करने से उनका अपना अस्तित्व, उनकी अपनी सत्ता मिट जाएगी। नदी उन्हें आकार देती है, लेकिन वे नदी नहीं बन सकते। उनका समर्पण स्थिर है, बहता हुआ नहीं।

मेरी यात्राओं की तरह ही। जब मैं किसी नए शहर या संस्कृति (नदी) से मिलती हूँ, तो वह मुझे बदलती है, मुझ पर अपनी छाप छोड़ती है, लेकिन मेरे अंदर की 'लिपिका' (द्वीप) तो वही रहती है। यह उपन्यास हमें यही सिखाता है कि हम समाज और समय की धारा से बनते ज़रूर हैं, पर हमारी पहचान उससे अलग और स्वतंत्र है।


लिपिका की नज़र से: एक निजी सफ़र


'नदी के द्वीप' पढ़ना किसी तेज़ रफ़्तार ट्रेन का सफ़र नहीं, बल्कि किसी झील में नाव चलाने जैसा है – धीमा, शांत और गहरा। इसकी भाषा संस्कृतनिष्ठ और काव्यात्मक है। यह आपसे धैर्य की माँग करती है। किरदारों के बीच के संवाद, विशेषकर भुवन और रेखा के बीच लिखे गए पत्र, किसी नाटक के मोनोलॉग की तरह हैं। वे सिर्फ़ बातें नहीं करते, वे अपनी आत्मा को एक-दूसरे के सामने उघाड़कर रख देते हैं।

मुझे रेखा का भुवन को लिखा एक पत्र आज भी याद है, जिसमें वह कहती है कि वह 'माँ' नहीं बनना चाहती, बल्कि 'प्रिया' बने रहना चाहती है। उस दौर में एक स्त्री का अपने प्रेम और अपनी पहचान को इस तरह परिभाषित करना एक बहुत बड़ी और साहसी बात थी।
यह उपन्यास उन लोगों के लिए नहीं है जो कहानी में सनसनी या तेज़ मोड़ ढूँढ़ते हैं। यह उन लोगों के लिए है जो किरदारों की मनोवैज्ञानिक परतों में उतरना पसंद करते हैं, जो प्रेम को शारीरिक और सामाजिक बंधनों से परे, एक बौद्धिक और आत्मिक स्तर पर समझना चाहते हैं।
यह किताब एक आईना है, जिसमें झाँककर हम ख़ुद से पूछते हैं – क्या हम धारा हैं, या द्वीप? और अगर हम द्वीप हैं, तो हमें आकार देने वाली नदी के प्रति हमारी क्या ज़िम्मेदारी है? यह एक ऐसा सफ़र है, जो आपको बाहरी दुनिया से खींचकर आपके ही अंतर्मन की गहराइयों में ले जाता है। और ऐसे सफ़र... हमेशा यादगार होते हैं।
 


तारीख: 25.06.2025                                    लिपिका




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