
नमस्ते, मैं लिपिका!
हम सब की ज़िंदगी में कुछ तारीखें होती हैं, जो कैलेंडर के पन्नों पर छपे महज़ अंक नहीं होतीं। वे यादों की अलमारियाँ होती हैं, जिनमें कुछ मुलाक़ातें, कुछ कही-अनकही बातें और कुछ अधूरे क़िस्से क़ैद होते हैं। दिव्य प्रकाश दुबे का उपन्यास 'अक्टूबर जंक्शन' पढ़ना, ऐसी ही एक अलमारी को खोलने जैसा है। यह एक किताब नहीं, दस साल लंबा एक दिन है, या एक दिन में जी गई दस साल की ज़िंदगी है।
यह उपन्यास पहली नज़र में एक प्रेम कहानी लग सकता है, लेकिन इसकी गहराई में उतरने पर मैंने पाया कि यह आज के दौर के रिश्तों, इंतज़ार के सब्र और हमारे फ़ैसलों से उपजे 'क्या होता अगर...' वाले ख़याल का एक ख़ूबसूरत और दर्द भरा दस्तावेज़ है।
'अक्टूबर जंक्शन' को उसके लेखक दिव्य प्रकाश दुबे के बिना समझना अधूरा होगा। डी.पी. दुबे उस 'नई वाली हिंदी' के अगुवा हैं, जो आज की पीढ़ी से उसकी भाषा में बात करती है। उनकी हिंदी भारी-भरकम और अकादमिक नहीं, बल्कि वैसी है जैसी हम और आप मेट्रो में, कॉफ़ी शॉप पर या दोस्तों की महफ़िल में बोलते हैं। वे उन कहानियों को कागज़ पर उतारते हैं, जो हमारे आस-पास घट रही हैं। वे किरदारों को गढ़ते नहीं, हमारे बीच से उठाकर अपनी कहानी में रख देते हैं। उनका लेखन एक पुल है, जो क्लासिक साहित्य की गंभीरता और आज की ज़िंदगी की भाग-दौड़ के बीच बना है, और यही बात 'अक्टूबर जंक्शन' को ख़ास बनाती है।
इस उपन्यास की आत्मा इसकी अनोखी शर्त में बसती है। कहानी के दो मुख्य किरदार, चित्रा और सुप्रभा, एक ट्रेन यात्रा में 10 अक्टूबर को मिलते हैं और एक अजीब सा फ़ैसला करते हैं - वे हर साल सिर्फ़ इसी तारीख को, 10 अक्टूबर को, एक-दूसरे से मिलेंगे। न कोई फ़ोन नंबर, न पता, न सोशल मीडिया। बस एक तारीख, एक शहर और एक मुलाक़ात।
यह कहानी किसी फ़िल्म की तरह नहीं जो शुरू होकर तीन घंटे में ख़त्म हो जाती है। यह उस वेब सीरीज़ की तरह है, जिसका अगला एपिसोड देखने के लिए आपको ठीक एक साल का इंतज़ार करना पड़ता है। लेखक ने इस इंतज़ार को कहानी का सबसे मज़बूत हिस्सा बना दिया है। हर मुलाक़ात अपने आप में पूरी भी है और अधूरी भी। हर साल हम यह देखने के लिए उत्सुक रहते हैं कि गुज़रे 364 दिनों में चित्रा और सुप्रभा की ज़िंदगियों में क्या बदला, और क्या वो चीज़ है जो अब भी नहीं बदली।

• चित्रा: आज की लड़की, जो ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीती है। वह व्यावहारिक है, लेकिन उसके दिल के किसी कोने में इस अव्यावहारिक रिश्ते के लिए एक नर्म जगह है। वह इंतज़ार करती है, लेकिन अपनी ज़िंदगी को रोककर नहीं।
• सुप्रभा: थोड़ा ठहरा हुआ, थोड़ा दार्शनिक। वह इस रिश्ते को सहेजकर रखना चाहता है। उसके लिए यह मुलाक़ात एक सालाना तीर्थयात्रा की तरह है, जो उसकी ज़िंदगी की भाग-दौड़ में सुकून का एक लम्हा लाती है।
इनका रिश्ता क्या है? दोस्ती? प्यार? या उस एहसास का नाम, जो इन दोनों के बीच कहीं है? यह उपन्यास जवाब नहीं देता, बल्कि सवाल छोड़ जाता है। उनका रिश्ता हक़ीक़त से ज़्यादा ख़यालों में जीता है। वे साल में एक दिन मिलते हैं, और बाक़ी 364 दिन एक-दूसरे के बारे में सोचते हुए गुज़ार देते हैं। यही सोचना उनके रिश्ते को ज़िंदा भी रखता है और जटिल भी बनाता है।
उपन्यास का शीर्षक बहुत गहरा है। 'जंक्शन' एक ऐसी जगह है, जहाँ ट्रेनें मिलती हैं, कुछ देर रुकती हैं, और फिर अपनी-अपनी मंज़िल की ओर बढ़ जाती हैं। चित्रा और सुप्रभा का रिश्ता भी एक जंक्शन ही तो है। उनकी ज़िंदगियाँ दो अलग-अलग पटरियाँ हैं, जो हर साल 10 अक्टूबर को एक जंक्शन पर आकर मिलती हैं, और फिर अलग हो जाती हैं। जंक्शन मिलन का भी प्रतीक है और बिछड़ने का भी। यह ठहराव का भी प्रतीक है और गति का भी।
'अक्टूबर जंक्शन' पढ़ना एक बहुत ही निजी और शांत अनुभव है। इसकी भाषा इतनी सरल और सहज है कि आप कहानी में बहते चले जाते हैं। यह आपसे धैर्य माँगती है। यह आपको सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हर रिश्ते को किसी नाम या मंज़िल की ज़रूरत होती है?
यह किताब आपको अपने 'अक्टूबर जंक्शन' की याद दिलाएगी। आपकी ज़िंदगी का वो इंसान, जिससे आप शायद एक ही बार मिले, लेकिन उसे कभी भूल नहीं पाए। वो अधूरा क़िस्सा, जिसे आप आज भी अपने मन में पूरा करते हैं। यह किताब आपसे पूछती है – क्या ज़िंदगी में कुछ कहानियों का अधूरा रहना ही उनकी ख़ूबसूरती है?
अगर आप एक ऐसी कहानी पढ़ना चाहते हैं जो ख़त्म होने के बाद भी आपके ज़ेहन में ज़िंदा रहे, तो इस जंक्शन पर ज़रूर उतरिएगा। यह एक ऐसा सफ़र है, जिसकी मीठी सी कसक आपके साथ देर तक रहेगी।