शिकारी का अधिकार

पिछले दिनों आयोजित तीन दिवसीय 'व्यंग्य की महापंचायत' में कई अनोखी बातें हुईं। पहली तो यही कि बन्दा 'अट्टहास' के प्रोग्राम में पहली बार शामिल हुआ । व्यंग्य में गाली-गलौज के प्रयोग और सपाटबयानी पर मेरे विचारों से सभी अवगत हैं, क्योंकि मैं इन पर बहुत कह और लिख चुका हूँ, इसलिए यहाँ मैं खुद को दोहराना नहीं चाहता। फिलहाल इतना बताना चाहता हूँ कि सम्मेलन की एक सहभागी आरिफा एविस ने उसमें अपने व्यंग्य-संकलन ‘शिकारी का अधिकार’ (प्रकाशक : लोकमित्र 1/6588, सी-1, रोहतास नगर (पूर्व), शाहदरा, दिल्ली-110032, पृष्ठ 64, मूल्य 30 रुपये) का विमोचन भी करवाया। 

मौका निकालकर मैंने इस संकलन को पढ़ना शुरू किया, तो पढ़ता ही चला गया। पढ़कर हैरत में भी पड़ गया, क्योंकि संकलन के प्राय: सभी व्यंग्य बहुत प्रखर हैं। आकार-प्रकार से बच्चों की किताब जैसे लगने वाले इस व्यंग्य-संकलन में आरिफा के 17 व्यंग्य संकलित हैं। ज्यादातर व्यंग्य सामयिक घटनाओं पर आधारित हैं, पर वे व्यंग्य ही हैं, तात्कालिक टिप्पणियाँ नहीं। उत्तराखंड में एक विधायक द्वारा घोड़े की टाँग तोड़ने की घटना हो, या जबरन भारत माता की जय बुलवाने का मामला, कोलकाता में लंबे समय से बन रहे पुल का अंतत: भरभराकर गिर जाने का वाकया हो या बात-बात पर पाकिस्तान चले जाने का धमकीनुमा सुझाव, महँगाई और सूखे के बावजूद अच्छे दिन आने का जश्न हो या सरकारी पुरस्कार दिए जाने के मापदंड, सभी पर आरिफा की कलम चारा काटने की मशीन की तरह तेजी से चली है और सब-कुछ काटती चली गई है। 

आरिफा ने ज्यादातर उलटबाँसी यानी विपरीत-कथन को व्यंग्य का औजार बनाया है, जैसे ‘बोलो अच्छे दिन आ गए’ में वे लिखती हैं, “पूरी दुनिया में देश का डंका बज रहा है। अमेरिका भारत की शर्त पर झुक गया है। पाक में हडकंप मच गया है। चीन जैसे गद्दार देश में भारत की तूती बोल रही है। (प्रधानमंत्री के) विश्वभ्रमण से देश को विश्वगुरु मान लिया गया है। चाहे आर्थिक, सामाजिक खुशहाली के मामलों में दूसरे देशों की तुलना में हमारे देश की रैंक नीचे से पहले या दूसरे नंबर पर हो।...देश के हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये आ चुके हैं।...रोजगार इतने पैदा हो चुके हैं कि एक व्यक्ति के लिए लाखों वेकेंसी निकलती हैं। भर्ती-फॉर्म से बिलकुल पैसा नहीं कमाया जाता, चाहे वो भर्ती कैंसिल ही क्यों न करनी पड़े।”

Shikari ka adhikar

इसी प्रकार ‘ये इश्क बहुत आसां’ में छद्म देशप्रेमियों पर व्यंग्य करते हुए वे लिखती हैं, “दूसरे वतन से नफरत करे बिना देशप्रेम भी कोई देशप्रेम है। देशप्रेम तो होता ही दूसरी जाति, धर्म, देश से नफरत करने के लिए है। अब सब इनसानों से इश्क करने लगेंगे तो ये ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी, अपनी-पराई संस्कृति का भेद कौन बरकरार रखेगा?”

पुस्तक बहुत छोटी-सी है और अमूल्य होते हुए भी उसका मूल्य केवल तीस रुपए है। इसके सारे के सारे व्यंग्य एक अद्भुत ताजगी से भरे हैं। साथ में अनूप श्रीवास्तव जी को किया गया भावभीना समर्पण है, अनूप शुक्ल की अलग अंदाज में लिखी हुई भूमिका है और लेखिका की ‘मेरी कलम से’ शीर्षक प्रस्तावना भी, हालाँकि व्यंग्य भी उसी की कलम से हैं। पुस्तक में कमियाँ भी हैं, जो न होतीं तो आश्चर्य होता। फिर भी, बड़बोलेपन और जी-हुजूरी के बल पर अपना स्थान बना सकने की काल्पनिक दुनिया में जीने वाले हिंदी-व्यंग्य के पप्पू इस लड़की से बहुत-कुछ सीख सकते हैं। मैं आरिफा के व्यंग्य पढ़कर नई पीढ़ी की महिलाओं के व्यंग्य-लेखन से बहुत आश्वस्त हुआ हूँ, उतना ही जितना नई पीढ़ी के पुरुषों में शशिकांत सिंह, वीरेंद्र सरल और अरविंद पथिक मुझे आश्वस्त करते हैं। लिखने को तो पुस्तक के बारे में पाँच-दस पेज मैं और लिख सकता हूँ, लेकिन अच्छा होगा कि भोर की ओस सरीखी ताजगी से भरे व्यंग्यों वाली इस अल्पमोली छोटी-सी पुस्तक को आप लोग खुद पढ़कर इसका आनंद लें। 

लेखिका : आरिफा एविस | प्रकाशक : लोकमित्र | पृष्ठ सं. 64 | कीमत : 30 रुपये 

----वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेशकांत 


तारीख: 08.06.2017                                                        आरिफा एविस






नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है