
नमस्ते, मैं लिपिका!
एक कला प्रेमी होने के नाते मैंने महसूस किया है कि कुछ कृतियाँ केवल पढ़ी या देखी नहीं जातीं, वे एक नशा बन जाती हैं। जैसे कोई गीत जो आपकी ज़ुबान पर चढ़ जाए, या थिएटर का कोई संवाद जो आपके ज़हन में गूँजता रहे। हरिवंश राय बच्चन जी की 'मधुशाला' मेरे लिए एक ऐसी ही साहित्यिक कृति है। यह केवल एक कविता संग्रह नहीं, यह 135 रुबाइयों (चार पंक्तियों की कविता) से बना एक ऐसा मंत्र है, जिसे आप एक बार पढ़ना शुरू करते हैं तो उसके सुरूर में डूबते चले जाते हैं।
अक्सर लोग 'मधुशाला' का नाम सुनकर सोचते हैं कि यह शराब या मयख़ाने की तारीफ़ में लिखी गई कोई किताब होगी। लेकिन यह इसका सबसे सतही और ग़लत परिचय है। असल में, यह तो जीवन के सबसे गहरे दर्शन को चार प्रतीकों - मधुशाला, साकी, प्याला और मदिरा - के रूप में पिरोकर परोसा गया एक उत्सव है।

'मधुशाला' को पूरी तरह समझने के लिए इसके रचयिता के हृदय में झाँकना ज़रूरी है। बच्चन जी ने यह कालजयी रचना उस समय (1935 के आस-पास) लिखी, जब वे व्यक्तिगत जीवन में असहनीय पीड़ा से गुज़र रहे थे। उनकी पहली पत्नी श्यामा जी गंभीर रूप से बीमार थीं और क्षय रोग (टीबी) से लड़ रही थीं। 1936 में उनका निधन हो गया। 'मधुशाला' का दर्शन, जिसे 'हालावाद' भी कहा जाता है, इसी पीड़ा से जन्मा था। यह दुनिया के ग़मों से भागने का नहीं, बल्कि उन्हें स्वीकार कर, जीवन के हर पल को, चाहे वह दुख का हो या सुख का, पूरी शिद्दत से जीने का एक दर्शन था। जब आप यह जानते हुए इन पंक्तियों को पढ़ते हैं, तो 'मदिरा' का हर प्याला जीवन के कड़वे-मीठे घूँट का प्रतीक लगने लगता है, जिसे कवि ने ख़ुद पिया था। यह कृति उनके लिए एक निजी संबल थी, जिसने उनकी पीड़ा को एक अमर दर्शन में बदल दिया।
इस किताब का जादू समझने के लिए, हमें पहले इसके चार प्रतीकों को समझना होगा:
1. मधुशाला : यह कोई आम मयख़ाना नहीं, यह हमारी दुनिया है, हमारा जीवन है।
2. साकी: यह वो शक्ति है जो हमें जीवन के अनुभव परोसती है। यह साकी कभी आपकी प्रेरणा है, कभी आपका प्रेम, कभी कोई गुरु, और अंत में तो ख़ुद मृत्यु भी।
3. प्याला : यह हमारा शरीर है, हमारा हृदय है, हमारा मन है। यह वो पात्र है जिसमें हम जीवन के रस को ग्रहण करते हैं।
4. मदिरा/हाला : यह जीवन का रस है, उसका अनुभव है। यह प्रेम है, जुनून है, ज्ञान है, जवानी है, और यहाँ तक कि दुख भी।
'मधुशाला' में बच्चन जी जीवन के हर पहलू को बेबाक़ी और निडरता से छूते हैं:
• जीवन का उत्सव: यह कृति हमें सिखाती है कि जीवन से भागो मत, उसे पूरी तरह से जियो।
• सामाजिक समरसता का संदेश: उस दौर में, जब समाज धर्म और जाति में बँटा हुआ था, बच्चन जी ने मधुशाला को एक ऐसी जगह बताया जहाँ कोई भेद नहीं। उनकी यह पंक्तियाँ आज भी मशाल की तरह राह दिखाती हैं:
*"मुसलमान औ' हिन्दू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला, एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला, *दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते, बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर, मेल कराती मधुशाला।"
• मृत्यु का निडर स्वागत: बच्चन की मधुशाला में मृत्यु का भी स्वागत है। वह अंत नहीं, बल्कि एक पड़ाव है, जहाँ साकी ख़ुद मृत्यु है और चिता ही अंतिम मधुशाला है।
• पन्नों से मंच तक: कुछ दिलचस्प क़िस्से
• उमर ख़ैयाम की प्रेरणा: बच्चन जी फ़ारसी के महान कवि उमर ख़ैयाम की 'रुबाइयात' से बहुत प्रेरित थे। उन्होंने पहले ख़ैयाम की रुबाइयों का हिंदी में अनुवाद किया और उसी प्रेरणा से फिर 'मधुशाला' की मौलिक रचना की।
• एक रात की शोहरत: 'मधुशाला' ने बच्चन जी को रातों-रात पूरे भारत में प्रसिद्ध कर दिया। उनकी ओजस्वी आवाज़ में 'मधुशाला' का पाठ सुनना एक अनुभव होता था। कवि सम्मेलनों में जहाँ भी वे जाते, उनसे 'मधुशाला' सुनाने की ही फ़रमाइश होती। वे हिंदी साहित्य के पहले "सुपरस्टार" कवि बन गए।
• संगीत का सफ़र: इस कृति की लोकप्रियता सिर्फ़ किताबों तक सीमित नहीं रही। महान गायक मन्ना डे ने पूरे 'मधुशाला' को संगीतबद्ध करके गाया, जिसने इसे घर-घर तक पहुँचा दिया। बच्चन जी के पुत्र, श्री अमिताभ बच्चन, ने भी कई मंचों पर इसका पाठ करके इसे नई पीढ़ियों से जोड़ा है।
'मधुशाला' पढ़ना किसी दोस्त के साथ बैठकर ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव पर बात करने जैसा है। जब आप यह जानते हैं कि यह दर्शन एक ऐसे व्यक्ति के हृदय से निकला है जो ख़ुद गहरे दुख से गुज़र रहा था, तो इन पंक्तियों का वज़न और भी बढ़ जाता है। यह किताब आपको ज़िंदगी का नशा करना सिखाती है - वो नशा जो दुनिया के ग़मों को भुलाने के लिए नहीं, बल्कि ज़िंदगी के हर पल को, चाहे वो खट्टा हो या मीठा, पूरी शिद्दत से जीने के लिए किया जाता है। यह आपको अपनी मधुशाला ख़ुद बनाने के लिए प्रेरित करती है, जहाँ आपकी मेहनत मदिरा है, आपकी लगन साकी है, और आपका लक्ष्य ही वह प्याला है जिसे आपको भरना है।