मैला आँचल

नमस्ते, मैं लिपिका!
 

एक मुसाफ़िर के तौर पर मैंने जाना है कि यात्राएँ दो तरह की होती हैं। एक, जहाँ आप नई-नई जगहें देखते हैं, और दूसरी, जहाँ आप एक पूरी की पूरी संस्कृति की आत्मा में उतर जाते हैं। फणीश्वरनाथ 'रेणु' का कालजयी उपन्यास 'मैला आँचल' पढ़ना मेरे लिए दूसरी तरह की यात्रा थी। यह किताब पढ़ना नहीं, बल्कि बिहार के पूर्णिया जिले के एक गाँव 'मेरीगंज' की आत्मा में बस जाना था। यह किसी उपन्यास का पन्ना नहीं, बल्कि एक पूरे गाँव की जीती-जागती जीवनी है, जिसे रेणु जी ने अपनी कलम से नहीं, बल्कि अपनी आत्मा की स्याही से लिखा है।

 

रेणु और उनका अंचल: लेखक नहीं, धरती का बेटा

'मैला आँचल' को समझने के लिए पहले इसके लेखक 'रेणु' को समझना ज़रूरी है। फणीश्वरनाथ 'रेणु' सिर्फ़ एक लेखक नहीं थे, वे एक सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया, आज़ादी के बाद भी वे सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहे। वे उसी धरती की उपज थे, जिसके बारे में उन्होंने लिखा। उन्होंने किरदारों को गढ़ा नहीं, बल्कि अपने आस-पास के जीवन से उन्हें उठाया था। उनका जीवन और उनका लेखन एक-दूसरे में इस तरह गुँथे हुए हैं कि आप उन्हें अलग नहीं कर सकते। 'मैला आँचल' कोई काल्पनिक कथा नहीं, बल्कि रेणु जी के अपने अंचल (क्षेत्र) का एक यथार्थवादी दस्तावेज़ है, जिसमें धड़कन भी उनकी है और दर्द भी उनका।

 

मेरीगंज: जहाँ पूरा गाँव ही नायक है

अक्सर हम कहानियों में एक नायक ढूंढते हैं, पर इस उपन्यास का नायक 'मेरीगंज' गाँव ख़ुद है। रेणु जी ने 'आंचलिकता' को हिंदी साहित्य में स्थापित कर दिया। आंचलिकता का मतलब सिर्फ़ किसी गाँव की कहानी कहना नहीं, बल्कि उस गाँव की भाषा, उसके लोकगीत, उसके अंधविश्वास, उसकी राजनीति, उसकी दुश्मनी, उसके प्रेम, यानी उसकी पूरी आत्मा को कागज़ पर उतार देना है। शीर्षक 'मैला आँचल' भारत माता के उस आँचल का प्रतीक है, जो पिछड़ेपन, गरीबी, जातिवाद और राजनीति की गर्द से मैला तो है, पर है बहुत अपना, बहुत ममतामयी।

 

 

किरदारों का जीवंत मेला: मेरीगंज के लोग

इस उपन्यास में किरदारों का एक पूरा संसार है। हर किरदार अपनी जगह महत्वपूर्ण है और गाँव की तस्वीर का एक ज़रूरी रंग है।

डॉ. प्रशांत: वह हमारी, यानी शहरी पाठकों की आँखें हैं। शहर से आया यह युवा, आदर्शवादी डॉक्टर जब मलेरिया सेंटर खोलने गाँव आता है, तो हम उसी के साथ गाँव की अच्छाइयों और बुराइयों से परिचित होते हैं। वह विज्ञान और तर्क का प्रतीक है जो गाँव के अंधविश्वासों (जैसे 'डायन' का प्रकोप) से टकराता है। शुरुआत में वह एक बाहरी व्यक्ति होता है, लेकिन धीरे-धीरे वह गाँव की मिट्टी और कमली के प्रेम में ऐसा रच-बस जाता है कि गाँव ही उसका घर बन जाता है।

कमली और गाँव की औरतें: कमली गाँव के तहसीलदार की बेटी है, जो रहस्यमयी ढंग से बीमार रहती है। वह उस समय के सामंती समाज में दबी-कुचली स्त्री का प्रतीक है, लेकिन प्रशांत का प्रेम उसे एक नई पहचान और आवाज़ देता है। कमली के अलावा फुलिया, लछमी जैसी और भी कई औरतें हैं, जो गाँव की स्त्रियों के संघर्ष और उनकी जिजीविषा को दर्शाती हैं।

राजनीति के महारथी (बालदेव, कालीचरण): यह उपन्यास आज़ादी के बाद के भारत के राजनीतिक मोहभंग की कहानी भी है। बालदेव जैसे पुराने कांग्रेसी हैं जो गाँधीजी के आदर्शों पर चलते हैं, तो वहीं कालीचरण जैसे समाजवादी युवा हैं, जिनमें जोश तो है पर दिशा नहीं। इन किरदारों के माध्यम से रेणु जी ने दिखाया है कि कैसे 'स्वराज' का सपना गाँवों में पार्टी-बाजी, जातिवाद और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रहा था।

बावनदास: यह किरदार उपन्यास का नैतिक केंद्र है। कद में बौना, पर सिद्धांतों में हिमालय जैसा ऊँचा। वह गाँधी के सच्चे अनुयायी का प्रतीक है। जब वह देखता है कि जिस कांग्रेस के लिए उसने सब कुछ त्याग दिया, वही अब भ्रष्टाचार में डूब रही है, तो उसका दिल टूट जाता है। उसका अंत इस उपन्यास के सबसे मार्मिक और शक्तिशाली क्षणों में से एक है।

 

कुछ दिलचस्प तथ्य और विवाद

जब रेणु पर हुआ मुक़दमा: यह उपन्यास इतना यथार्थवादी था कि इसे पढ़ने के बाद पूर्णिया के एक डॉक्टर ने फणीश्वरनाथ 'रेणु' पर मानहानि का मुक़दमा कर दिया था। उनका दावा था कि उपन्यास के किरदार डॉ. प्रशांत का चरित्र उन पर आधारित है और इससे उनकी बदनामी हुई है। हालाँकि, बाद में अदालत में रेणु जी यह केस जीत गए, लेकिन यह घटना साबित करती है कि उनके लेखन में सच्चाई की ताक़त कितनी ज़्यादा थी।

उपन्यास या रिपोर्टाज?: कई आलोचकों ने इसे उपन्यास की जगह 'साहित्यिक रिपोर्टाज' कहा, क्योंकि यह हक़ीक़त के बेहद क़रीब था। रेणु जी ने ख़ुद कहा था, "इसमें फूल भी हैं, शूल भी; धूल भी है, गुलाब भी; कीचड़ भी है, चंदन भी... मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।"

 

लिपिका की नज़र से:
'मैला आँचल' को पढ़ने के लिए धैर्य चाहिए। यह एक अनुभव है, एक immersion है। इसे पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं एक टाइम मशीन में बैठकर 75 साल पीछे के भारत में पहुँच गई हूँ। इसकी भाषा, जिसमें हिंदी के साथ स्थानीय बोलियों की चाशनी घुली हुई है, आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती है। इस किताब को पढ़ना किसी नक्शे पर मेरीगंज को ढूँढ़ना नहीं है, बल्कि अपनी आत्मा के नक्शे पर भारत के एक हिस्से को हमेशा के लिए अंकित कर लेना है।

यह उपन्यास उन लोगों के लिए है जो भारत की आत्मा को समझना चाहते हैं। यह किताब आपको बताती है कि असली भारत शहरों की ऊँची इमारतों में नहीं, बल्कि ऐसे ही हज़ारों-लालों गाँवों के 'मैले आँचल' में बसता है। यह पढ़ने के बाद 'आंचल' शब्द आपके लिए सिर्फ़ साड़ी का पल्लू नहीं रह जाएगा, बल्कि एक जीती-जागती, साँस लेती हुई धरती का प्रतीक बन जाएगा, जो मैला होकर भी माँ की तरह पावन है और अपनी सारी अच्छाइयों-बुराइयों के साथ वंदनीय है।


तारीख: 02.07.2025                                    लिपिका




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