( मत्तगयन्द/मालती सवैया छन्द )
(कविता)
अँखियों के झरोखे से
एक दिना घर से निकले हम, वक्त सवा दस होय गयो जी।
मोटर से अपनी धनि संग, घरू असबाबहि लेन गयो जी।
आज महाशिवराति महा शुभ, पर्व सुमंगल छाय गयो जी।
पावन पूजन अर्चन शंकर का, मन भाव समाय गयो जी।। (01)
एक गली जब पार हुई तब, कौतुक-सा मन छाय गया है।
मूर्ति सजाय रहे कुछ लोग व मन्दिर एक बनाय दिया है।
औरत से कवि बोल पड़ा यह, मंदिर प्रकट आज किया है।
ना पहले, कल था न यहाँ, लख राज़ अचंभित आज हिया है।। (02)
जाकर पूछ लिया उनसे तब, क्यों इसकी रचना करते हैं।
भक्त सदा शिव के मन से, सब पूजन अर्चन ही करते हैं।
वे उपवास करें उनके हित, मन्दिर एक अभी रचते हैं।
साँप गले अरु सीस जटा, डमरू कर में शिव जी धरते हैं।। (03)
आज शिवालय खूब सजाकर, के रमणीय बनाय दिया है।
जोश बड़ा दिखता इनमें अब, मन्दिर आँगन साफ किया है।
मूर्ति गले पर माल चढा़कर, सुन्दर रूप बनाय दिया है।
फूल गुलाब जुही गुलमोहर, कुन्द कनेर चढा़य दिया है।। (04)
देख शिवालय राह चले फिर, जाकर काम किया निज का है।
माल खरीद लिया सब आपण से, अरु पन्थ लिया घर का है।
दोपहरी घर लौट रहे हम, भीड़ दिखी दिन भक्तन का है।
पूजन स्थल भरे दिखते सब, पूजन पूरण शास्वत का है।। (05)
साँझ पड़े गुजरा उस राह, अचानक विस्मय आय भरा है।
गायब थे शिव मन्दिर-मूरत, ताज्जुब मानस माथ भरा है।
नोट सँभाल रहे कुछ मानुस, सौ,दस,पाँच- पचास धरा है।
नोट बड़ा दिखता सब ओर, नया वह सुन्दर थाल भरा है।। (06)
देख रहा सब हाल खड़ा पथ, बेहद विस्मित हो कवि आया।
ढेर पड़ा लख नोटन का मन, बोल पड़ा कितनी यह माया?
खूब जचा यह काम अरे मन, खोल शिवालय शंकर गाया।
श्रम बिना धन-धान्य कमाकर, मौज करो व सुखी अति काया।। (07)
मूर्ख बनाकर मानव को ठग लो, यह काम मुझे अति भाया।
ईश्वर नामक लूट मची यह, लूटनहार धनी बन आया।
नोट चढा़य रहे जन वे जिनके, घर अन्न नहीं कुछ माया।
ज्ञान बिना नर दान करे इनकी, मति क्षीण भई, धन जाया।। (08)
पूछत ही यह ज्ञात हुआ कि पचास हजार कमाय लिया है।
लागत केवल एक हजार व लाभ कमाकर हर्ष लिया है।
काम अजीब व अद्भुत है यह, लाभ सदा हम लोग लिया है।
हाथ व पाँव हिलाय बिना, हमने यह जीवन भोग लिया है।। (09)
घी, पकवान, अनाज व चून, सदा कुछ क्विंटल भेंट चढ़ाया।
ढे़र लगा फल-फूलन का, महिमा लख, मन्दिर मो मन भाया।
साधन है धनवर्षक मन्दिर, होड़ मची सब लूटन आया।
ईश्वर का डर ये दिखलाकर, कायर लोग बना भरमाया।। (10)
लोग अबोध अज्ञान भरे इनको, बहकाकर यों उलझाया।
जाल बुने मकड़ी मन भावन, ज्यों उलझे पर प्राण गँवाया।
काम करे दिन रात कठोर, तभी धन मानव ने कुछ पाया।
लूटत लाज न शर्म उन्हें पर, क्यों तुमने धन व्यर्थ गँवाया।। (11)
ईश्वर ही शुभचिन्तक पालनहार, नहीं धन का वह भूखा।
लोगन से धन लूट रहे कुछ, लोग हिया जिनका अति सूखा।
स्वारथ खातिर मूर्ति पुजाकर, तू धनवान बना, अब रूखा।
नोट भरे घर में अब बेहद, माल बना नित, जी भर तू खा।। (12)
मन्दिर से धनवान बने व किलो दस, स्वर्ण दहेज दिया है।
जो अखबार पढ़ी यह बात, अचम्भित होय हमार हिया है।
मन्दिर खोल करो सब मौज, विचार दिमाग बिठाय लिया है।
नोटन की बरसात गिरे, धन-दौलत पाकर राज किया है। (13)
सौ रुपये बरबाद गये सुन, मूरत नोटन को कब खाती?
लालच कारण लूट रहे कुछ, दुष्ट बने फिरते अब घाती।
खर्च करो धन बाल पढ़ाकर, योग्य बने, बर आदत आती।
मूर्ख बनो मत, ढोंग तजो अब, ज्ञान–विज्ञान पढ़ो दिन राती।। (14)
काम नहीं करना पड़ता अरु, मुफ़्त मजे कर दौलत पाते।
ये कपटी अपने हित हेतु, शिवालय, पूजन स्थल बनाते।
लूट शुरू अब ये करते मन से, हमको हि गुलाम बनाते।
अर्पित नोट करो सब मूरत को, तब जीवन हो बतलाते। (15)
क्यों हम मूर्ख बने फिरते अब, चुंगल में इनके मत आओ।
क्यों धन को बरबाद करो अब, ढोंग तजो तुम पूत पढा़ओ।
बीत गई सदियाँ लुटते अरु, हाँ अब जागत और जगाओ।
पूजन पाठ करा हमको भरमाय, इन्हें अब दूर भगाओ। (16)
रोग बड़ा गहरा यह है, जड़ से मिट जाय यही मन ठानें।
जीवन को झकझोर दिया, समता मन माय न, दानव मानें।
छूत-अछूत करे दिन रात, अछूतन द्रव्य अछूत न मानें।
क्यों कर से लपटात फिरो?, तज दो धन, शुद्ध तुम्हें तब जानें।। (17)
दुष्ट बड़े, धनवान बने सब, ढोंग रचाकर के अति भारी।
मन्दिर नामक यंत्र बनाकर, लोगन की हर ली मति सारी।
दान करो तुम दान करो, निसि-वासर पाठ पढ़ाय पुकारी।
लोगन को धनहीन करे खल, ज्यों तम लावत मावस कारी।। (18)
देख लिया सब हाल खड़े रह, चक्कर आय गया अति भारी।
लूटन की तरकीब अजीब रची, दुनिया ठग ली यह सारी।
ढोंग रचाकर दीगर दौलत, दान कराय क्षुधा यह न्यारी।
मानवता तज भेद बढ़ावत, क्या यह धर्म बता मन प्यारी? (19)
मूर्ख बनो मत, प्रश्न करो अब, लूटत क्यों यह बात बताओ।
पीतल पाहन पूजन पातक, क्यों तुम लोगन को भरमाओ?
क्यों डरते श्रम से तुम कायर, काम करो व कमाकर खाओ।
जाग जहान रहा कह मारुत, कर्मन का कड़वा फल पाओ।। (20)