बेटी

एक आशा बनकर आई थी
एक बनके किरण मैं छाई थी
अपने मां बाप की गोद में
मैं खेल बहुत इतराई थी

कभी स्वप्न में भी ना सोचा था
यूं जीवन मुझसे जुदा होगा
अपने ही देश में मेरे साथ
यूं अंजाम बुरा होगा

मैं खुश किस्मत थी कि
मुझको ऐसे थे मां बाप मिले
मैं प्यार में यूं थी पली बढ़ी
सब लड़कों से अधिकार मिले

पढ़ लिखकर कुछ मैं नाम करूं
था स्वप्न मेरे मां बाबा का
भीगी पलकों से सोच रही
अब कभी नहीं पूरा होगा

अब रक्षा बंधन पर भाई की 
नज़रें मुझको ढूंढेंगी
जब भी कोई बेटी देखेंगी 
मेरी मां की आंखें रो देंगी
हर कन्यादान के मौके पर
बाबा का हाल बुरा होगा।

मैं छली गई, मैं हुई आहत
मेरे संग जग बदनाम हुआ
देवी है पूज्य जिस मिट्टी पर
बेटी का ये अंजाम हुआ।

मैं अब समाज से पूछती हूं
अब मिला न्याय भी तो क्या होगा 
जिस घर की रोशनी थी मैं
उस घर में क्या उजियारा होगा

हो रहा है क्यूं ये व्यभिचार
कुछ तुमने परखा जांचा है?
मेरी हालत कुछ और नहीं
देश पर एक तमाचा है

आंखों में शर्म गर बाकी है
कुछ काम ऐसा करना होगा
नई व्यवस्था नई सोच संग
नव समाज निर्माण करना होगा

बेटी गर मुझको माना है
तो कसम उठाए रखना तुम
हर हालत में हर कीमत में
संस्कृति बचाए रखना तुम

ना मां जनने से डरे बेटी
ना बाप को अब कोई डर होगा
लो अब प्रतिज्ञा हुआ है जो
वो पुनः नहीं अब फिर होगा।


तारीख: 18.04.2024                                    रवि पांडे




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