लकीरों को बदलने का विश्वास

फटे हुए आंचल से शिशु को छिपाए
सिर पर अपने बोझ उठाएं
हाथ की लकीरों को बदलने
चल पड़ी वह मजदूरी करने
लगा सब कुछ बदल जाएगा
ये वक्त एक दिन संभल जाएगा
बच्चे बड़े हो जाएंगे
जिम्मेदारी खुद ही उठाएंगे
चल रहा था जैसे - तैसे
नियति को रास ना आया
फिर भी ऐसे
एक दिन फिर ऐसा हुआ
महामारी का प्रकोप फैला
एक शून्य उसके सामने खड़ा था
सबकुछ ले चला था
लकीरों के बदलने के सपने
पड़े हुए थे पलकों पर अपने
चिंता फिर घर नई आई
अपनी मिट्टी की उसे याद दिलाई
उम्मीद की डोर पकड़े
चल पड़ी वह नई राह
पग भर के
एक नई आशा के साथ
हाथ की लकीरों को
फिर से बदलने का विश्वास।


तारीख: 08.03.2024                                    वंदना अग्रवाल निराली




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