इश्क़ है यूँ बेइंतहा तुमसे,
कि अगर मेरा बस चले,तो तेरे नाम मैं ताजमहल लिख दूँ ,
पर मेरी औकात कहाँ इतनी,
कि तेरे नाम ये प्रीतमहल लिख दूँ,
शाहजहाँ तो नही मैं,पर हाँ एक शायर हूँ मैं
कहो तो तेरे नाम कोई नई गज़ल लिख दूँ।
ना तू लैला है, ना मैं कोई मजनू हूँ,
ना ही तू हीर ना ही मैं कोई राँझा हूँ ,
पर हाँ तेरे संग जीवन भर का अटूट डोर साझा हूँ ।
तू मेरी पुष्पा और मैं तेरा राकेश,
तेरे लिये धर लूँ मैं दुनियाँ का हर एक भेष,
तुम्हे पाकर, पाने को और ना रह गया कुछ शेष ।
ना जाने कब तेरी बचकानी हरकतें
मेरे दिल को कुछ यूँ भा गई,
बचपन से जवानी तक दूर रह कर भी
अचानक मेरे तुम इतने करीब आ गई,
कुदरत के करिश्मे पर तब मुझे और यकीन हो गया,
जब एक बचपन के दोस्त के बदन पर,
पत्नी का श्रृंगार भरा लिबास आ गया।