स्याही का सच


मेरे लिखे को मेरा जिया हुआ समझना तुम्हारी भूल होगी,
मेरी हर नज़्म को मेरे ज़ख़्मों का पता मानना,
यह तो उस आईने से अपनी ही परछाईं पूछने जैसा है।

मैं जो लिखता हूँ, वो तो उस बारिश की तरह है,
जो कहीं और से बादल बन कर उठती है,
और बरसती किसी और ज़मीन पर है।
मिट्टी मेरी है, पर पानी मेरा नहीं।

कागज़ पर जो 'मैं' तुम पढ़ते हो, वो एक किरदार है,
एक लिबास, जिसे मैंने कुछ देर के लिए ओढ़ लिया है,
किसी और की ख़ामोशी को आवाज़ देने के लिए,
किसी अनजाने दर्द को अल्फ़ाज़ देने के लिए।

स्याही में घुला हर आँसू मेरा नहीं होता,
कभी वो उस पेड़ का होता है, जिसे कटते हुए मैंने देखा,
कभी उस अजनबी का, जिसकी आँखें मैंने पढ़ीं।
मैं तो बस एक माध्यम हूँ, एक डाकिया,
जो ख़त कहीं और के, पहुँचाता कहीं और है।

मेरा जिया हुआ तो बस वो कोरा पन्ना है,
वो ख़ामोशी है, जो दो शब्दों के बीच ठहर जाती है।
अगर मुझे ढूँढना ही है,
तो वहाँ ढूँढना, जहाँ कविता ख़त्म होती है,
और ज़िन्दगी शुरू।


तारीख: 25.06.2025                                    मुसाफ़िर




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