
दीवार पर टंगी घड़ी,
टिक-टिक करती,
जैसे कुछ नहीं बदला।
पर हम बदल गए,
जैसे बासी रोटी,
बाहर से वैसी,
अंदर से कड़ी।
तुम कहती हो, "चाय बनाऊँ?"
मैं कहता हूँ, "हाँ,"
पर मन में
एक अनकही बात अटक जाती है।
वही पुरानी बातें,
वही पुरानी शिकायतें,
जैसे धूल जमी किताबों पर।
कभी-कभी,
एक पल के लिए
तुम हँस देती हो,
जैसे खिड़की से
एक धूप की किरण आ जाए।
मैं भी मुस्कुरा देता हूँ,
एक छोटी-सी ख़ुशी,
जैसे बच्चों की किलकारी,
दूर, बहुत दूर से।
फिर वही सन्नाटा,
वही खालीपन,
जैसे कमरे में बस फर्नीचर रखा हो,
लोग चले गए हों।
तुम बर्तन धोती हो,
मैं अख़बार पढ़ता हूँ (वही, रोज़-रोज़ की ख़बरें)।
ग़ुस्सा, जैसे गर्म चाय की भाप,
तुरंत उठ जाता है,
छोटी-छोटी बातों पर।
फिर रात आती है,
हम सो जाते हैं,
एक ही बिस्तर पर,
पर मीलों दूर,
जैसे दो अनजान शहर
एक ही नक्शे पर।
शायद, कल फिर,
एक पल के लिए
धूप आएगी,
फिर वही अँधेरा,
फिर वही बासी रोटी,
फिर वही... हम।